जो झाँक पाते
मस्तिष्क मे मेरे
तो देखते कितने अच्छे शब्द बुनता हूँ मैं
बाहर आते आते सिलाई खुल जाती हैं
उधडे धागे रह जाते हैं बेमतलब के
गुंथे हुए उलझे एक दूसरे मे
शायद सुलझ भी जायें जो सुलझायें
पर ना ये गांठें अकेले खुलनी हैं मुझसे
और ना वक़्त हैं किसी को एक सिरा थामने का
गुस्सा सा आता हैं इनके इस टूटने पे
फिर लगता हैं इनकी भी क्या गलती भला
घर की हवा को तड़पते हैं ये बेचारे
बिन जज्बातों की ये हवा फब्ती नहीं इनको
ना खिलने के लिए कोई सरंक्षण
ना पनपने के लिए कोई तरावट
इस माहोल मैं कैक्टस पलते है
आक्रामक सधे हुए और बेहद नुकीले
इन सरल शब्दों को तो मौका ही न था
समझता हूँ चुप्पी भी साध ली हैं अब
बस कभी कभी फद्फदाहत सी होती हैं की
उठाऊँ तुम्हे इन कैक्टस से और बस एक दफा दिखला पाऊँ
मेरे ताज़ा बुने हुए शब्द
तो देखते कितने अच्छे शब्द बुनता हूँ मैं
बाहर आते आते सिलाई खुल जाती हैं
उधडे धागे रह जाते हैं बेमतलब के
गुंथे हुए उलझे एक दूसरे मे
शायद सुलझ भी जायें जो सुलझायें
पर ना ये गांठें अकेले खुलनी हैं मुझसे
और ना वक़्त हैं किसी को एक सिरा थामने का
गुस्सा सा आता हैं इनके इस टूटने पे
फिर लगता हैं इनकी भी क्या गलती भला
घर की हवा को तड़पते हैं ये बेचारे
बिन जज्बातों की ये हवा फब्ती नहीं इनको
ना खिलने के लिए कोई सरंक्षण
ना पनपने के लिए कोई तरावट
इस माहोल मैं कैक्टस पलते है
आक्रामक सधे हुए और बेहद नुकीले
इन सरल शब्दों को तो मौका ही न था
समझता हूँ चुप्पी भी साध ली हैं अब
बस कभी कभी फद्फदाहत सी होती हैं की
उठाऊँ तुम्हे इन कैक्टस से और बस एक दफा दिखला पाऊँ
मेरे ताज़ा बुने हुए शब्द