ये बात तब की हैं जब मैं स्कूल मैं पड़ा करता था. हाँ काफ़ी वक़्त हो चला हैं. इतना तो यक़ीनन ही के यहाँ वहा
बिखरे सच्चाई के फीके हिस्से "Nostalgia" के "Palette" से रंगसार हो जाए. बेहतरी भी इसी मैं हैं. असल कहानी तो नीरस ही होती हैं
पर उपर की कुछ एक पड़ते उकेरो, आड़े तेडे उभारो को सहला के समतल करो, हल्के हाथो से पिचके हुए कोनो को समतल करो , अपनी कल्पना के रंग उपर से छिद्को और जैसे वो "Cooking shows" मे कहते हैं ना , कहानी तैयार. देखने मे बेशक सच्चाई से बिल्कुल ही अलग लगे पर परत दो परत नीचे से ही सच्चाई की नींव दिखने लग जाएँगी . फिर चाहे उसे "Fiction" कहो या "Fantasy" अंतत:कोई साधारण सा इंसान एक लगभग साधारण सी ज़िंदगी ही जी रहा होता हैं
अरे ये बात बात पे मुद्दे से भटकने की मेरी बड़ी ही पुरानी और बेकार आदत हैं. अब कहाँ मैं कहानी सुनाने जा रहा था और कहाँ कहानी की परिभाषा स्थापित करने लगा. तो हाँ बात मेरे स्कूल के वक़्त की हैं. मैं पाँचवी या छ्थी मे पड़ता हूँगा और घर से स्कूल बमुश्किल ३ किलो मीटर की दूरी पे होगा. तो बस मुहल्ले के सारे बच्चें साथ ही पैदल स्कूल जाते थे और फिर साथ मैं ही वापिस. रास्ते मैं १ पान सिगरेट की दुकान पड़ती थी जिसे हम सब ललचाई नज़रो से देखा करते थे. नही नही सिगरेट जैसी कोई खराब आदत नही थी मुझे . मुझे तो यहा तक पान भी कोई ख़ास नही भाता था . पर "Chewing Gum" चबाने का बड़ा शौक था. यू स्वाद तो कुछ ख़ास उसका भी नही लगता था और जो थोड़ा बहुत होता भी था वो बस पहले १-२ मिनट मे ख़त्म हो जाता था. फिर तो बस लगता था की "Rubber" चबा रहे हो जैसे . पर फिर भी "Chewing Gum" चबाने का एक अपना ही टॅशन था . सारे बल्लेबाज़ टीवी पे "Chewing Gum" चबा के ही "Batting" करने आते थे. हमारे भी मुक़ाबले चलते थे के कौन कितनी देर तक एक ही "chewing gum" चबा सकता हैं . घंटो चबाते रहते थे चाहे जबड़ा ही क्यों ना दुखने लगे.
और कुछ समय से "Centre Fresh" के साथ "Cricket cards" भी मिलने लगे थे. इन "cards" की भी अपने आप मैं एक अलग ही कहानी थी. हवा मैं बात थी के जो पूरे के पूरे १०० कार्ड्स इकट्ठे कर लेंगा उसे एक "bat" मिलेंगा . और वो भी कोई ऐसा वैसा नही , SG का. बड़े बड़े खिलाड़ी खेला करते थे उससे पुनीत बता रहा था हज़ारो मैं कीमत होती हैं उसकी. खैर मैने "हवा मैं बात " जुमले का प्रयोग इसलिए किया क्योंकि हमारी तमाम कोशिशो के बावजूद हम सब मिलकर भी वो १०० कार्ड्स जुटा नही पाए और उस "SG Bat" की सच्चाई असत्यापित ही रह गयी.
मेरी कहानी उस पान की दुकान से ही चालू होती हैं एक दिन एक आदमी उस पान की दुकान के बाजू मैं आके बैठ गया. आदमी भी बस कहने को ही था. मैले कुचले कपड़े जो की यहा वहा से फटे हुए थे . पैबंड लगाने की कोशिश की गयी थी पर उनकी हालत देखले कह सकते थे की उस प्रयास को भी काफ़ी वक़्त गुज़र चुका था. बाल बिखरे हुए जिनमे धूल भरी हुई थी. और उपर से १ शब्द भी नही बोलता थे जैसे किसी ने ज़ुबान पे ताला मार दिया हो उसके.
मेरा गाँव एक छोटा सा शांत सा गाँव था. और अभी तक तो "news channels" ने अपनी सनसनीखेज़ खबरो का आक्रमण भी चालू नही किया था. ऐसी परिस्थितियो मैं उस पान की दुकान के बगल वाले पागल का कौत्तहूल का विषय बनना स्वाभाविक ही था
बिखरे सच्चाई के फीके हिस्से "Nostalgia" के "Palette" से रंगसार हो जाए. बेहतरी भी इसी मैं हैं. असल कहानी तो नीरस ही होती हैं
पर उपर की कुछ एक पड़ते उकेरो, आड़े तेडे उभारो को सहला के समतल करो, हल्के हाथो से पिचके हुए कोनो को समतल करो , अपनी कल्पना के रंग उपर से छिद्को और जैसे वो "Cooking shows" मे कहते हैं ना , कहानी तैयार. देखने मे बेशक सच्चाई से बिल्कुल ही अलग लगे पर परत दो परत नीचे से ही सच्चाई की नींव दिखने लग जाएँगी . फिर चाहे उसे "Fiction" कहो या "Fantasy" अंतत:कोई साधारण सा इंसान एक लगभग साधारण सी ज़िंदगी ही जी रहा होता हैं
अरे ये बात बात पे मुद्दे से भटकने की मेरी बड़ी ही पुरानी और बेकार आदत हैं. अब कहाँ मैं कहानी सुनाने जा रहा था और कहाँ कहानी की परिभाषा स्थापित करने लगा. तो हाँ बात मेरे स्कूल के वक़्त की हैं. मैं पाँचवी या छ्थी मे पड़ता हूँगा और घर से स्कूल बमुश्किल ३ किलो मीटर की दूरी पे होगा. तो बस मुहल्ले के सारे बच्चें साथ ही पैदल स्कूल जाते थे और फिर साथ मैं ही वापिस. रास्ते मैं १ पान सिगरेट की दुकान पड़ती थी जिसे हम सब ललचाई नज़रो से देखा करते थे. नही नही सिगरेट जैसी कोई खराब आदत नही थी मुझे . मुझे तो यहा तक पान भी कोई ख़ास नही भाता था . पर "Chewing Gum" चबाने का बड़ा शौक था. यू स्वाद तो कुछ ख़ास उसका भी नही लगता था और जो थोड़ा बहुत होता भी था वो बस पहले १-२ मिनट मे ख़त्म हो जाता था. फिर तो बस लगता था की "Rubber" चबा रहे हो जैसे . पर फिर भी "Chewing Gum" चबाने का एक अपना ही टॅशन था . सारे बल्लेबाज़ टीवी पे "Chewing Gum" चबा के ही "Batting" करने आते थे. हमारे भी मुक़ाबले चलते थे के कौन कितनी देर तक एक ही "chewing gum" चबा सकता हैं . घंटो चबाते रहते थे चाहे जबड़ा ही क्यों ना दुखने लगे.
और कुछ समय से "Centre Fresh" के साथ "Cricket cards" भी मिलने लगे थे. इन "cards" की भी अपने आप मैं एक अलग ही कहानी थी. हवा मैं बात थी के जो पूरे के पूरे १०० कार्ड्स इकट्ठे कर लेंगा उसे एक "bat" मिलेंगा . और वो भी कोई ऐसा वैसा नही , SG का. बड़े बड़े खिलाड़ी खेला करते थे उससे पुनीत बता रहा था हज़ारो मैं कीमत होती हैं उसकी. खैर मैने "हवा मैं बात " जुमले का प्रयोग इसलिए किया क्योंकि हमारी तमाम कोशिशो के बावजूद हम सब मिलकर भी वो १०० कार्ड्स जुटा नही पाए और उस "SG Bat" की सच्चाई असत्यापित ही रह गयी.
मेरी कहानी उस पान की दुकान से ही चालू होती हैं एक दिन एक आदमी उस पान की दुकान के बाजू मैं आके बैठ गया. आदमी भी बस कहने को ही था. मैले कुचले कपड़े जो की यहा वहा से फटे हुए थे . पैबंड लगाने की कोशिश की गयी थी पर उनकी हालत देखले कह सकते थे की उस प्रयास को भी काफ़ी वक़्त गुज़र चुका था. बाल बिखरे हुए जिनमे धूल भरी हुई थी. और उपर से १ शब्द भी नही बोलता थे जैसे किसी ने ज़ुबान पे ताला मार दिया हो उसके.
मेरा गाँव एक छोटा सा शांत सा गाँव था. और अभी तक तो "news channels" ने अपनी सनसनीखेज़ खबरो का आक्रमण भी चालू नही किया था. ऐसी परिस्थितियो मैं उस पान की दुकान के बगल वाले पागल का कौत्तहूल का विषय बनना स्वाभाविक ही था
तरह तरह के कयास लगाए जाते और हर दो तीन दीनो मैं १ पक्की खबर तो यक़ीनन ही आ जाती.
" अरे बड़ा होनहार था , वैष्णव देवी की यात्रा के लिए निकला था अपने परिवार के साथ. Bus accident मे दोनो माँ बाप चल बसे . अब या तो उनकी मौत का सदमा था या फिर इसके सिर पे लगी चोट तभी सी इसकी ऐसी हालत हो गयी हैं ", शर्मा जी ने ये पक्की कहानी सुनाई.
"बहुत प्यार करता था अपनी बीवी से. और बीवी थी भी इतनी खूबसूरत की जो देखे बस देखता रह जाए. जानने वालो ने बहुत समझाया की अपनी बीवी को इतनी आज़ादी मत दो . घर की इज़्ज़त घर की दीवारो मे ही शोभा देती हैं. पर ये तो प्यार मे पागल था . एक ना सुनी किसी की . फिर तो बस जो होना था वही हुआ. भाग गयी एक दिन वो .उस दिन जो टूटा ये तो फिर ना उबर सका" मिश्रा जी ने पुर विश्वास के साथ ये पक्की खबर बताई
"बीवी का खून कर दिया दहेज के लिए. जब पोलीस को पता चल गया तो बचने के लिए पागल होने का नाटक चालू कर दिया " राजेश भैय्या ने अपनी "conspiracy theory" दी. राजेश भैय्या की पड़ाई तो पूरी हो चुकी थी पर नौकरी की तलाश अभी भी ज़ारी थी . अपना खाली वक़्त वो जासूसी किताबें पद के निकाला करते थे.
ऐसे बहुत सी कहानिया रोज़ आती रहती थी. उस वक़्त ध्यान नही दिया पर एक बात गौर करने वाली थी . लगभग सारी कहानिया ही अपनो से बिछर्ने की थी. किसी ने भी ये नही कहा की उसकी नौकरी नही लगी या "exam" मे फेल हो गया . कही ना कही सब जानते थे की इन मामूली बातों से किसी को सदमा नही लगता . हस्यापद बात ये हैं की हम अपनी पूरी ज़िंदगी इन गैर ज़रूरी बातो मे इस कदर उलझे रहते हैं की ज़रूरी बातें यानी अपनो के लिए वक़्त ही नही निकाल पाते . कहा था ना मैने मुद्दे से भटकने की बड़ी ही बेकार आदत हैं मेरी.
खैर बहुत सी ऐसी पक्की खबरो के बाद लोगों का ध्यान भटकने लग गया . लोग अब बोर होने लगे थे. विषय निस्संदेह रोचक था पर दिक्कत ये थी की कहानी का मुख्य पात्र कुछ भी नही बोलता था. अब कब तक कोई और उसके शब्द ईजाद करता रहे . तो कहानी स्थिर हो गयी और वो पान की दुकान के बगल वाला पागल हमारी रोज़ की ज़िंदगी का एक भूला सा पहलू बन गया .
और फिर एक दिन अचानक ही वो बोला . नही नही कोई दार्शनिक वचन नही कहे उसने बस दो शब्द कहे . "गोआ सुपारी"
महेश अंकल हमेशा ही उसके पास कुछ खाने का समान रख दिया करते थे. आज तो वो बहुत ही अच्छी स्थिति मे हैं पर बचपन मे काफ़ी ग़रीबी देखी थी उनने. शायद इसलिए ही उस पागल से एक जुड़ाव महसूस करते थे . उनके बचपन की कोई याद ताज़ा हो जाती थी शायद .
एक दिन उन्होने खाने के बजाय कुछ रुपये रख दिए. पहले भी कुछ लोगो ने रुपये रखे थे पर उस पागल ने कभी ध्यान नही दिया . अब पागल का दिमाग़ कौन ही समझे पर वो लगातार बिना आँखें झपकाए रुपयों को देखता रहा. और फिर ठीक वैसे ही महेश अंकल को. ये कार्यकर्म कुछ देर तक जारी रहा .महेश अंकल भी ना जाने क्यों स्तब्ध से खड़े रहे .
और फिर पागल ने पान की दुकान पे इशारा किया और कहाँ "गोआ सुपारी". इस एक वाकये ने इस नीरस होती कहानी को फिर से रोचक बना दिया . निश्चय ही किसी भी कहानीकार ने इस कहानी मैं गोआ सुपारी के प्रवेश का अनुमान नही लगाया होगा . और अब तो कयास लगाना भी मुश्किल था. अब भाई बिछ्राव मौत यहा तक कत्ल तक भी सब ठीक था पर इन सबमे गोआ सुपारी कहाँ से बिठाए .
मेरे गाँव को कम ना समझे आप. हार किसी ने नही मानी. प्रयास अभी भी जारी थे. पर उन कहानियों मे अब वो "conviction" नही था. वो पागल एक अंबूझ पहेली बन गया था और अंबूझी पहेली किसे अच्छी नही लगती
तो अब उस पागल को गोआ सुपारी खिलाने के लिए भीड़ इकट्ठा होने लगी . जैसे वो कोई पागल ना हो कोई भगवान की मूर्ति हो और लोग गोआ सुपारी नही प्रसाद चड़ा रहे हो . खैर पहले कुछ दिन जैसी भीड़ तो बाद मैं नही दिखी पर कुछ लोग बराबर वहा जाते रहे . आश्चर्यजनक रूप से मेरे माता पिता भी उन लोगो मे से थे. आश्चर्यजनक इसलिए क्योंकि दोनो ही ज़्यादा सामाजिक नही थे . ना मंदिर जाते थे ना किसी कोँमिटी का हिस्सा थे. पर लगभग रोज़ ही शाम को हम गाड़ी से जाते और पापा उस को एक गोआ सुपारी खरीद के दे देते . और वो पागल हँसने लगता. बाद मे पता चला की ये ज़िद मा की थी.
ज़िद क्यों थी ये भी कभी समझ नही आया. हर बार मा रुआंसी हो जाती थी वहा पे . बस यही कहती थी की उसकी आँखों मे कितनी पीड़ा हैं कितनी वेदना हैं . और मुझे लगता था की मा के स्क्रू ढीले हो गये हैं . क्योंकि मुझे तो बस १ हंसता हुआ पागल दिखी देता था जो गोआ सुपारी खाता था. हंसते हुए कोई दुखी कैसे हो सकता हैं . और अगर मान भी लूँ की वो दुखी हैं तो क्यों ही कोई उसे देखना चाहेंगा. बड़े लोगों की बड़ी बड़ी बातें
कुछ वक़्त तक ये सिलसिला चलता रहा . फिर १ दिन उस पागल का वहाँ बैठना बंद हो गया . पूछताछ की तो पता चला की वो उस पान की दुकान से चोरी करने लगा था इसलिए उस दुकान वाले ने उसे मार मार के भगा दिया . आदत जो पद गयी थी उसे खाने की. उसके बाद वो पागल कहाँ गया किसी को नही पता. लोगों ने भी थोड़े दिन ढूँढा उसे और उससे भी ज़्यादा कुछ दिन और वो लोगों की चर्चा का हिस्सा बना रहा पर फिर आँखों से ओझल कहानी कितने ही समय लोगो का ध्यान खींच पाती . धीरे धीरे हर कोई उस पागल को भूल गया. मैं भी कोई अपवाद नही था
आज उस गाँव से काफ़ी दूर निकल आया हूँ. मुंबई बेहद बड़ा शहर हैं पर पता नही क्यों उस छोते से गाँव के ख़ालीपन को ये इतना बड़ा शहर भर नही पा रहा. सतह पे सब ठीक हैं . ठीक ठाक सी नौकरी हैं कहने को बहुत सारे दोस्त भी हैं जिनके साथ इधर उधर घूमने भी जाते रहता हूँ . कई बार बस लगता हैं की भागते रहना ज़रूरी हैं वरना वो ख़ालीपन निगल लेगा . और बस भागता रहता हूँ. क्या मैं खुश हूँ ? मुझे पता नही . मैं दुखी तो नही ही हूँ . खुशी की परिभाषा वैसे भी क्या हैं.जो मानो तो खुशी जो ना मानो तो गम . पर बस किसी भी पार्टी मैं , किसी भी ट्रिप पे, ऑफीस के जोक्स पे किसी की ग़लतियो पे, आजकल जब भी हंस रहा होता हूँ उस पागल का चेहरा आँखों के सामने आ जाता हैं. और उसकी आँखों की पीड़ा अब बड़ी साफ साफ दिखाई देती है.